मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पंचमी, जिसे देशभर में ‘विवाह पंचमी’ के नाम से जाना जाता है, हिंदू धर्म की सबसे पावन और मंगलकारी तिथियों में से एक है। यह वह दिवस है जब त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने जनकनंदिनी माता सीता के साथ परिणय सूत्र में बंधकर एक आदर्श गृहस्थ जीवन की नींव रखी थी। आज अयोध्या सहित दुनिया भर के राम मंदिरों में यह दिन भव्य उत्सव, शोभायात्राओं, यज्ञ, कल्याणोत्सव और निरंतर रामचरितमानस पाठ के साथ मनाया जा रहा है। भक्तजन इस पावन अवसर पर श्रीराम-सीता के पावन विवाह की पुनः अनुभूति कर रहे हैं और अपने जीवन में सौभाग्य, सामंजस्य तथा मंगल कामनाओं की प्राप्ति के लिए प्रार्थना कर रहे हैं।
हाल ही में, इस पावन पर्व पर सोशल मीडिया पर सूरज उपाध्याय की एक चिंतनशील पोस्ट ने पाठकों का ध्यान खींचा है, जो इस ऐतिहासिक घटना के गहन दार्शनिक और प्रतीकात्मक पहलुओं पर प्रकाश डालती है। यह विमर्श स्वयंवर की उस प्राचीन घटना की पुनर्व्याख्या प्रस्तुत करता है, जो सिर्फ एक विवाह ही नहीं, बल्कि भगवान राम के दिव्य स्वरूप के विश्व के सामने प्रकट होने का क्षण था। उसी विमर्श के आधार पर हम आपको कुछ जानकारी दे रहे हैं।
एक सार्वजनिक सूचना, कोई निमंत्रण नहीं
विमर्श की शुरुआत इस बात से होती है कि महाराज जनक ने किसी भी राजा या महाराजा को पारंपरिक निमंत्रण नहीं भेजा था। इसके बजाय, उन्होंने एक सार्वजनिक सूचना प्रसारित कराई थी। घोषणा स्पष्ट और चुनौतीपूर्ण थी: जो भी वीर भगवान शिव के भव्य धनुष ‘पिनाक’ को उठाकर, उसकी प्रत्यंचा चढ़ाकर तोड़ देगा, राजकुमारी सीता उसकी भार्या बनेंगी। यह एक खुला स्वयंवर था, जो केवल शक्ति और वीरता पर केंद्रित था, न कि राजनीतिक गठजोड़ या वंशावली पर।
हालाँकि, कुछ ऋषि-मुनियों, जैसे महर्षि विश्वामित्र, को विशेष रूप से निमंत्रण भेजा गया था, जो उस समय की धार्मिक और आध्यात्मिक प्रतिष्ठा को दर्शाता है। दिलचस्प बात यह है कि देवताओं के समान इक्ष्वाकु वंश के होने के बावजूद, अयोध्या में महाराज दशरथ के पास इस ‘धनुष यज्ञ’ की कोई औपचारिक सूचना नहीं पहुंची थी। इस प्रकार, प्रभु श्री राम और लक्ष्मण का वहाँ पहुँचना पूरी तरह से आकस्मिक और अप्रत्याशित था।
गुरु की आज्ञा और एक अप्रत्याशित यात्रा
जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में वर्णन किया है, श्री राम और लक्ष्मण उस समय महर्षि विश्वामित्र के साथ थे, ताकि उनके यज्ञ की रक्षा कर सकें। उनका उद्देश्य किसी स्वयंवर में भाग लेना बिल्कुल भी नहीं था। विमर्श इसे एक आधुनिक संदर्भ देते हुए कहता है कि दोनों युवराज मिथिला इसलिए गए क्योंकि वे अपने गुरु विश्वामित्र के साथ थे, मानो उनकी ‘व्यक्तिगत सुरक्षा (SPG)’ का दायित्व निभा रहे हों।
स्वयंवर के आरम्भ होने से पहले, भाटो ने सभा में उपस्थित सभी राजाओं और देवताओं के समक्ष नियमों और शर्तों की घोषणा की। तुलसीदास जी ने इन शब्दों में उस घोषणा का सार प्रस्तुत किया है:
सोइ पुरारि-कोदंड कठोरा। राज-समाज आजु जेई तोरा॥
त्रिभुवन-जय-समेत बैदेही। बिनहिँ बिचार बरह हठि तेही ।।
अर्थात, “हे राजसमाज! आज जो भी इस कठोर धनुष (शिवजी के धनुष) को तोड़ेगा, उसे तीनों लोकों का विजेता मान लिया जाएगा और बिना किसी हठ के जानकी जी उसका वरण कर लेंगी।”
वह क्षण: जब एक क्रिया ने सिद्ध कर दिया दिव्यत्व
विमर्श के अनुसार, यही वह निर्णायक अवसर था जहाँ मात्र एक कार्य से भगवान श्री राम का परिचय दुनिया से होना था। यह एक ‘सबूत’ (Evidence) था, जो श्री राम को केवल एक महान मनुष्य नहीं, बल्कि सर्वशक्तिमान भगवान और परब्रह्म के रूप में स्थापित करने वाला था। उस सभा में बैठे यक्ष, गंधर्व, देवता और महान राजा-महाराजा इस सत्य के साक्षी बनने वाले थे।
गुरु विश्वामित्र की आज्ञा पाकर प्रभु राम ने धनुष उठाया। विमर्श इस क्षण को ‘माइक्रोसेकंड’ में होना बताता है। तुलसीदास जी के शब्दों में उस घटना का वर्णन कुछ यूँ है:
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ।।
अर्थात, धनुष को लेते, प्रत्यंचा चढ़ाते और खींचते हुए किसी ने देखा भी नहीं। लोग वैसे ही खड़े के खड़े रह गए और उसी क्षण राम ने धनुष के मध्य भाग को तोड़ डाला, जिसकी भयानक और कठोर ध्वनि से तीनों लोक गूंज उठे। विमर्श इस चमत्कार की गति पर प्रकाश डालते हुए कहता है कि शायद यह घटना इतनी तीव्र गति से घटी कि कोई भी आँख उसे पूरी तरह देखने में सक्षम नहीं थी।
यह केवल एक धनुष भंग नहीं था। विमर्श इसे “दस हजार बाहुबलियों के अहंकार का भंजन” बताता है। यह श्रीराम के त्रिभुवन विजेता होने का प्रमाण था। उन्होंने धनुष के केवल दो टुकड़े किए (“प्रभु दोउ चापखंड मही डारे”), जो शायद यह प्रदर्शित करता है कि उन्होंने न केवल शिव के धनुष को तोड़ा, बल्कि द्वैत (द्वंद्व) के भाव को भी समाप्त कर दिया।
गुरु का अधिकार और अयोध्या की कीर्ति
इस घटना का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह था कि चतुरंगिणी सेना वाले अयोध्या के राजकुमार के विवाह का अधिकार सर्वप्रथम एक गुरु (महर्षि विश्वामित्र) के पास था। उन्होंने बिना महाराज दशरथ या माता कौशल्या से पूछे, अपने आध्यात्मिक अधिकार का उपयोग करते हुए, श्री राम को माता सीता के हाथों में सौंप दिया। यह घटना गुरु-शिष्य परंपरा की श्रेष्ठता और उसके निर्णयों की दिव्य स्वीकार्यता को रेखांकित करती है।
इस चमत्कार के बाद, पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तक में अयोध्या के राजकुमार की कीर्ति फैल गई।
महिं पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥
करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥
अर्थात, राम के धनुष तोड़ने और सीता को वर लेने का यश पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग में व्याप्त हो गया। अयोध्या की नर-नारियों ने आरती उतारी और धन-संपत्ति को भूलकर निछावर कर दिया।
आज विवाह पंचमी का पर्व इसी पावन घटना की स्मृति है। यह केवल एक विवाहोत्सव नहीं, बल्कि धर्म, नैतिकता, गुरु की महिमा और दैवीय शक्ति के प्रकटीकरण का उत्सव है, जो आज भी भक्तों के लिए सौभाग्य और मंगल का स्रोत बना हुआ है।
संकट नाशक मंत्रों का जप करें
विवाह पंचमी के दिन तुलसी की माला से भगवान को ध्यान में रखकर “ॐ जानकीवल्लभाय नमः” मंत्र का जप अत्यंत फलदायी माना गया है। इसके साथ मानस के निम्नलिखित दोहों में से किसी एक का जप करने से विवाह की मनोकामना शीघ्र पूर्ण होने की मान्यता है।
दोहा 1
प्रमुदित मुनिन्ह भावंरीं फेरीं। नेग सहित सब रीति निवेरीं॥
राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥
दोहा 2
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियं हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
दोहा 3
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥

